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- रीति-रिवाज को निभाते हुए राजा यदुवीर दशहरे के दिन हाथी की सवारी करके नगर भ्रमण पर निकले हैं।
- इस जंबू सवारी को देखने के लिए हर साल करीब 6 लाख लोग मैसूर पहुंचते हैं।
- माना जाता है कि 15वीं सदी में विजयनगर साम्राज्य के राजाओं ने इस पर्व को कर्नाटक में शुरू किया था।
- 14वीं सदी में इसकी ऐतिहासिक भूमिका थी और उस वक्त हम्पी नगर में इसको महानवमी कहा जाता था।
- इस साम्राज्य के पतन के बाद मैसूर के वाडयार राजाओं ने महानवमी (दशहरा) मनाने की परंपरा को जारी रखा।
- कृष्णराज वाडयार तृतीय ने मैसूर पैलेस में विशेष दरबार लगाने की परंपरा शुरू की थी।
- दिसंबर, 2013 में श्रीकांतदत्ता वाडयार की मृत्यु के बाद इस परंपरा को उनके वारिस यदुवीर कृष्णदत्ता वाडयार आगे बढ़ा रहे हैं।
खास मैसूर का दशहरा
- दशहरे पर मैसूर के राजमहल में खास लाइटिंग होती है। सोने-चांदी से सजे हाथियों का काफिला 21 तोपों की सलामी के बाद मैसूर राजमहल से निकलता है।
- काफिले की अगुआई करने वाले हाथी की पीठ पर 750 किलो शुद्ध सोने का अम्बारी (सिंहासन) होता है, जिसमें माता चामुंडेश्वरी की मूर्ति रखी होती है। जो करीब 6 किमी दूर बन्नी मंडप में खत्म होता है जहां माता की पूजा की जाती है।
- पहले इस अम्बारी पर मैसूर के राजा बैठते थे, लेकिन 26वें संविधान संशोधन के बाद 1971 में राजशाही खत्म हो गई। तब से अम्बारी पर राजा की जगह माता चामुंडेश्वरी देवी की मूर्ति रखी गई।
रावण का पुतला नहीं जलाया जाता
- खासकर साल 1972 के बाद से इस रिवाज में थोड़ा बदलाव आ गया है। जब से सरकार ने इस दशहरे के आयोजन का जिम्मा खुद लिया तब से राजपरिवार अपने महल में शाही अंदाज में दशहरा मनाता है जबकि बाहर राज्य सरकार बाहर का जिम्मा उठाती है।
- इस दशहरे की खासियत यह है कि यहां रावण का पुतला नहीं जलाया जाता और न ही राम को पूजा जाता है, बल्कि यहां दशहरे का पर्व इसलिए मनाया जाता है क्योंकि चामुंडेश्वरी देवी ने राक्षस महिषासुर का वध किया था।
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